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एक टूटा हुआ सपना

  • by
toota sapna

रमेश चौधरी का जन्म हरियाणा के एक छोटे से गाँव राजपुर में हुआ था। उनके पिता एक सामान्य किसान थे, जो अपने छोटे से खेत में मेहनत करके अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। परिवार में कई पीढ़ियों से खेती ही एकमात्र आजीविका का साधन था। गाँव में जीवन कठिन था – मौसम की मार, कम उपजाऊ ज़मीन, और हर साल बदलते कृषि संकट। रमेश के पिता हर सुबह सूर्योदय से पहले उठते और रात में देर से सोते, अपने परिवार को भूख और गरीबी से बचाने की लड़ाई में संलग्न।

रमेश के माता-पिता चाहते थे कि उनका बेटा भी किसानी करे, लेकिन रमेश के मन में शिक्षा के प्रति एक अलग ही लगाव था। वह रात-रात भर पढ़ता, गाँव के एकमात्र पुस्तकालय से किताबें उधार लेता और अपने सपनों को परखता। उसके शिक्षक कहते थे कि रमेश में कुछ अलग है – एक ज़िद, एक हौसला जो उसे अन्य किसान बच्चों से अलग करता था। वह हर किताब में छिपी हुई दुनिया को महसूस करता, हर पन्ने पर लिखे शब्दों में अपने भविष्य की झलक पाता।

गाँव में शादी एक सामाजिक संस्था थी, एक ऐसा बंधन जो परिवारों को जोड़ता था। रमेश की शादी सुमित्रा से हुई – एक सरल, समर्पित महिला जो अपने परिवार में सबसे अधिक प्यार और सहानुभूति रखती थी। सुमित्रा ने रमेश के सपनों को न केवल समझा, बल्कि उनमें विश्वास भी किया। जब रमेश ने अपने भविष्य के बारे में बताया – शिक्षा, ज्ञान और एक बेहतर जीवन का सपना – तो सुमित्रा ने उसका हाथ थाम लिया।

उनके पहले बेटे राहुल के जन्म के बाद, दोनों ने तय किया कि वे अपने बच्चे को हर संभव शिक्षा देंगे। राहुल एक प्रतिभाशाली बच्चा था। गाँव के स्कूल में उसने हमेशा प्रथम श्रेणी में अपना स्थान बनाया। उसके शिक्षकों ने उसकी क्षमताओं की सराहना की और कहा कि वह बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर सकता है।

रमेश और सुमित्रा ने अपनी हर संपत्ति राहुल की शिक्षा में लगा दी। उन्होंने अपनी जमीन के कुछ हिस्से बेच दिए, गहने गिरवी रख दिए – बस इसलिए कि राहुल अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सके। गाँव वाले उन्हें पगला कहते, लेकिन रमेश और सुमित्रा को कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनका एक ही लक्ष्य था – अपने बेटे को एक बेहतर भविष्य देना।

राहुल ने अपने कॉलेज में इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया। वह हर परीक्षा में टॉपर रहा। उसके सपने बड़े थे – विदेश जाना, एक बड़ा इंजीनियर बनना और अपने परिवार का नाम रोशन करना। जब उसे अमेरिका में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से स्कॉलरशिप मिली, तो पूरा गाँव उसके लिए गर्व से भर गया।

विदाई का दिन आया। रमेश और सुमित्रा ने अपने सभी गहने, जो उन्होंने राहुल की पढ़ाई के लिए बचाए थे, उसे दे दिए। “बेटा, अपना सपना पूरा कर,” सुमित्रा ने कहा, आँखों में आँसू और चेहरे पर गर्व।

शुरुआती वर्षों में राहुल अपने माता-पिता से नियमित रूप से संपर्क में रहा। फोन, ईमेल और वीडियो कॉल के माध्यम से वह अपनी प्रगति के बारे में बताता। रमेश और सुमित्रा हर उपलब्धि पर गौरवान्वित होते, हर सफलता को अपनी सफलता मानते।

समय के साथ संपर्क कम होता गया। राहुल व्यस्त हो गया – उसका करियर, उसकी नई संस्कृति, उसका नया जीवन। पत्र और कॉल्स में भी अब वह पहले जैसा नहीं रहा। सुमित्रा रोज़ राहुल की प्रतीक्षा करती, उसकी तस्वीर देखती, उसके कपड़े संभालती। रमेश समझदार की तरह दिखता, लेकिन अंदर से टूटा हुआ।

वर्षों बाद एक ईमेल आया। राहुल ने बताया कि उसने एक अमेरिकी लड़की से शादी कर ली है और वहीं रहेगा। क्षमा माँगी, लेकिन स्पष्ट था कि उसका कोई इरादा वापस लौटने का नहीं। सुमित्रा की तबीयत बिगड़ने लगी। गाँव वालों में फुसफुसाहट – “देखो, उनका बेटा उन्हें भूल गया।”

सुमित्रा का देहांत हो गया। अंतिम क्षणों में भी उसने राहुल का नाम लिया।

जब सुमित्रा का देहांत हुआ, राहुल को खबर भेजी गई। उसने एक संक्षिप्त ईमेल भेजा, जिसमें उसने अपनी शोक संवेदनाएँ व्यक्त कीं, लेकिन अंतिम संस्कार में शामिल होने नहीं आया। उसकी अमेरिकी पत्नी सारा ने उसे रोकने की कोशिश की – “तुम्हारी माँ थीं, तुम्हें जाना चाहिए,” लेकिन राहुल ने टाल दिया।

अमेरिका में राहुल एक बड़ी टेक कंपनी में वरिष्ठ इंजीनियर के पद पर कार्यरत था। उसका जीवन बाहर से सफलता से भरा हुआ लगता – अच्छी सैलरी, आलीशान घर, लक्जरीअस कार। लेकिन अंदर से वह खोखला था। सारा के साथ उसका विवाह भी सतही था – एक औपचारिक रिश्ता जिसमें प्यार की गहराई नहीं थी।

रमेश चौधरी की स्थिति दयनीय हो गई थी। सुमित्रा की मृत्यु के बाद, उसने जैसे जीने की आस ही खो दी। गाँव में उसकी स्थिति बदल गई थी। पहले जो लोग उससे मिलते और बातें करते, अब वे दूर से ही उसे देख लेते। उसकी एकांतता और दुख ने उसे गाँव के हाशिए पर धकेल दिया था।

उसने अपनी बची हुई जमीन भी बेच दी, क्योंकि रखरखाव की शक्ति नहीं रही। अब वह एक छोटे से किराए के कमरे में रहता था, जो गाँव के किनारे पर एक टीन की छत वाला मकान था। उसकी पेंशन और कुछ बचत ही उसका सहारा थी।

रोज़ सुबह वह गाँव की चौपाल पर बैठता, पुरानी यादों में खोया रहता। कभी-कभी बच्चे उसके पास आते और उससे पुरानी कहानियाँ सुनते। वह राहुल की बचपन की कहानियाँ सुनाता – कैसे राहुल हमेशा होनहार था, कैसे उसने हर चुनौती को पार किया।

राहुल के साथ संपर्क लगभग समाप्त हो गया था। साल में एक-दो बार कोई ईमेल या छोटी सी कॉल आती, जिसमें राहुल बस यह पूछता कि रमेश ठीक तो है। कभी-कभी एक छोटी सी राशि भी भेज देता, जैसे अपने कर्ज को चुकाने के लिए।

रमेश रात में अक्सर जागता और सोचता – क्या वह गलत था? क्या उसने राहुल को बहुत अधिक स्वतंत्रता दी? या फिर समाज ने, परिस्थितियों ने उनके रिश्ते को इतना कमजोर बना दिया?

गाँव के लोग उसे “वो बुजुर्ग” कहते, जिसका बेटा विदेश में बस गया। कुछ सहानुभूति दिखाते, कुछ उपेक्षा। लेकिन रमेश को किसी की परवाह नहीं थी। उसकी एकमात्र आश थी – एक बार फिर से अपने बेटे को देख लेना।

एक शाम, जब सूरज डूब रहा था और गाँव में सन्नाटा छा गया था, रमेश ने अपनी पुरानी फोटो एلबम निकाली। राहुल के बचपन की तस्वीरें, उसके स्कूल के प्रमाणपत्र – हर चीज़ जो उसे अपने बेटे से जोड़ती थी।

उसकी आँखें नम हो गईं। एक टूटी हुई आवाज़ में उसने कहा, “क्या तू कभी वापस आएगा, बेटा?”

लेकिन चारों ओर सिर्फ सन्नाटा था – एक ऐसी खामोशी जो हज़ारों अधूरी कहानियों को समेटे हुए थी।

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